नई दिल्ली, जेएनएन। कोरोना की दूसरी लहर में गंगा नदी में उतराते और उसके किनारे दफनाए गए शवों को लेकर दुष्प्रचार करने वालों को हिंदू समाज की ही कई जातियों, पंथों और समुदायों की परंपरा पर भी नजर डालनी चाहिए। सदियों से कुछ समुदायों में शव को जलाने की जगह जल समाधि देने तो कुछ में भूसमाधि (दफन करने) देने की परंपरा रही है। गंगा नदी के किनारे शवों का एक सच यह भी है…

कानपुर में हिंदुओं के कब्रिस्‍तान

कानपुर में हिंदुओं के सैकड़ों वर्ष पुराने आठ कब्रिस्तान हैं। नजीराबाद थाने के सामने, ईदगाह में पुरानी रेलवे लाइन के पास, ज्योरा-ख्योरा नवाबगंज, बाकरगंज, जाजमऊ, हंसपुरम नौबस्ता, बगाही और मर्दनपुर के पास। ज्योरा-ख्योरा और ईदगाह रेलवे कालोनी स्थित हिंदू कब्रिस्तान तो करीब 200 साल पुराने हैं।

ऐसे हुई परंपरा की शुरुआत

वर्ष 1930 में अस्तित्व में आए नजीराबाद स्थित श्री 108 स्वामी अछूतानंद स्मारक (कब्रिस्तान) समिति के सचिव रमेश कुरील बताते हैं, ’91 साल पहले शहर में स्वामी अच्युतानंद (जो बाद में अपभ्रंश होकर अछूतानंद हो गया) के तमाम अनुयायी थे। एक बच्चे के अंतिम संस्कार के लिए गंगा तट पर पंडों के ज्यादा रुपये मांगने पर आहत होकर बिना अंतिम संस्कार कराए ही लौट आए। तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत के अफसरों से बातचीत कर नजीराबाद थाने के सामने की जगह हिंदुओं के शव दफनाने के लिए आवंटित कराई। पहले यहां अनुसूचित जाति के जाटव, कोरी, पासी, खटिक, धानविक, वर्मा, गौतम और रावत शव दफनाते थे। इसके बाद धीरे-धीरे पिछड़ों समेत दूसरी जातियों के विशेष पंथ व विचारधारा को मानने वाले लोग शव दफनाने लगे।’

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